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कावड़ का उद्देश्य

कावड़ यात्रा में होता है अरबों का कारोबार;; दिन- प्रतिदिन बढ़ रहा कावड़ का क्रेज:: 80 से 90% होते हैं अन्य पिछड़ा वर्ग के कावड़िए:: समाज में आर्थिक समरसता बढ़ाने के लिए शुरू हुई थी कावड़ यात्रा, आज व्यापारियों की आय का बड़ा साधन:: गंगाजल और मंत्रों / जयकारों की शक्ति से जाते हैं सैकड़ों किलोमीटर पैदल।

धर्म से कर्म की प्रेरणा मिलती है, धर्म इतना महान है कि धर्म का वास्ता देकर किसी से कुछ भी कराया जा सकता है । धर्म की स्थापना कब, किसने और क्यों की थी ,लेकिन आज धर्म का स्वरूप बदल कर उसे किस रूप में प्रयोग किया जाता है, देखते हैं हरिद्वार से प्रारंभ होने वाली भारत की सबसे बड़ी धार्मिक यात्रा को जिसमें प्रारंभ से अंत तक करोड़ों के वारे - न्यारे होते हैं ।मेहनत और धन किसका व्यय होता है और फायदा किसका होता है ? वैसे तो हमारे पूर्वज ऋषि-मुनियों ने धार्मिक पर्वों की स्थापना समाज में आर्थिक संपन्नता और समरसता लाने के लिए ही की थी, लेकिन वर्तमान में इसका फायदा कौन उठा रहा है? कावड़ मेला एक ऐसा महापर्व है जिससे न केवल सनातन धर्म के अनुयायी बल्कि इस्लाम धर्म के अनुयायी सर्वाधिक लाभान्वित होते हैं ,क्योंकि छोटी हो या बड़ी सभी कावड़ों का निर्माण मुस्लिम समाज के लोग ही करते हैं । हरिद्वार से प्रारंभ होकर कावड़ यात्रा नजीराबाद रोड और सहारनपुर रोड के अतिरिक्त सर्वाधिक जनसंख्या मुजफ्फरनगर रोड पर होती है यहां से यूपी, दिल्ली ,हरियाणा ,राजस्थान और मध्य प्रदेश के कावड़ यात्री निकलते हैं। हरिद्वार से प्रारंभ होने वाली श्रावण मास की कावड़ यात्रा भारतवर्ष और सनातन धर्म की सबसे बड़ी धार्मिक यात्रा है, जो भगवान शिव की श्रद्धा स्वरूप प्रतिवर्ष होती है । पूर्वी- मध्य उत्तर प्रदेश के गोला गोकर्ण नाथ और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पुरा महादेव दोनों ऐसे सिद्ध स्थल हैं जहां भगवान शिव का गंगाजल से अभिषेक करने पर उत्तम पुण्य फल की प्राप्ति होती है।शेष कावड़ यात्री अपने -अपने निकटवर्ती शिवालयों में पवित्र गंगाजल से भगवान भोलेनाथ का अभिषेक करते हैं , जबकि उत्तराखंड में नीलकंठ महादेव ,दक्ष प्रजापति और बिल्केश्वर महादेव मंदिर में श्रावण मास पर्यंत भक्तगण 40 दिन तक नियमित जलाभिषेक करते हैं। यह वास्तविकता है कि कांवड़ मेले में अत्याधिक जनसैलाब उमड़ता है, लेकिन यात्रियों के आंकड़े प्रशासन द्वारा जितने बढ़ाकर दिखाए जाते हैं उतनी भीड़ नहीं होती है । शुक्र है भगवान शिव और देवर्षि इंद्र का जो वरसात का मौसम होने के कारण कावड़ियों द्वारा खुले स्थानों पर छोड़ी गई गंदगी साफ हो जाती है ।अन्यथा जब हरिद्वार नगर निगम नहीं बना था तब नगरपालिका हुआ करती थी उस वर्ष वर्षा न होने के कारण हर की पैड़ी से 2 किलोमीटर की परिधि में मक्खी मच्छर इतने पैदा हो गए थे कि महामारी का माहौल बन गया था बेचारी नगर पालिका और सरकार के पास संसाधन नहीं थे तब भी वर्षा के जल ने ही हरिद्वार का कल्याण किया था। इस लेख का उद्देश्य एक ऐसी प्रेरणा पर आधारित है जो कावड़ ले जाने वालों की आंखें खोल देगी। इतने बड़े जन समुदाय का 80% हिस्सा अन्य पिछड़ा वर्ग का होता है और जो वर्ग धर्म एवं पूजा पाठ के नाम पर परिवार पालता है उस जाति की कावड़ मेले में संख्या नगण्य होती है । हमारे समर्थ समाज जिसे सवर्ण कहते हैं वे कावड़ नहीं उठाते ।ऐसा विगत कई वर्षों के सर्वे के आधार पर देखा जा रहा है । समर्थ वर्ग के साथ ही कावड़ का निर्माण करने वाले अल्पसंख्यक वर्ग की भी 30 - 40% व्यापारिक भागीदारी होती है। इस कावड़ मेले में प्रारंभ से अंत तक ऐसा कोई श्रद्धालु नहीं जो औसतन दो हजार से कम व्यय करता है,और बड़ी कावड़ उठाने वाले ग्रुप तो प्रति कावड़ चार-पाँच लाख रूपए व्यय कर देते हैं । उस ग्रुप में गाड़ी, डीजे तथा खान-पान की व्यवस्था उस समर्थ वर्ग की होती है ।कावड़ उठाने वाले को भगवान भोलेनाथ क्या देते हैं यह तो नहीं पता लेकिन कावड़ यात्री हरिद्वार से लेकर अपने गंतव्य तक प्रतिवर्ष अरवों की अर्थव्यवस्थ बना देते हैं। इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था धर्म और आस्था के नाम पर बनाने वाले भी साधुवाद के पात्र हैं ,इसका पूरा लाभ भी वे ही लेते हैं । कांवड़ियों पर शिव की कृपा बरसे या न बरसे ,लेकिन खानपान सेवा से जुड़ा व्यापारी वर्ग मालामाल हो जाता है । यह भगवान शिव की कृपा का विशेष पुण्यफल है जो श्रावणँ मास में प्रतिवर्ष कांवड़ मेले के रूप में देखा जाता है।

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